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गुरु की जीवन में आवश्यकता


 🙏🌞ऊं गुरूवे नमः🌞🙏

 

" गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः ।

 गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ॥ "

 भारतीय संस्कृति में गुरु का बहुत ऊंचा और आदर का स्थान है। माता-पिता के समान गुरु का भी बहुत आदर रहा है और वे शुरू से ही पूज्य समझे जाते रहे है। गुरु को ब्रह्मा, विष्णु, महेश के समान समझ कर सम्मान करने की पद्धति पुरातन है। 

‘आचार्य देवोभवः’ का स्पष्ट अनुदेश भारत की पुनीत परंपरा है और वेद आदि ग्रंथों का अनुपम आदेश है। ऐसी मान्यता है कि हरिशयनी एकादशी के बाद सभी देवी-देवता चार मास के लिए सो जाते है। इसलिए हरिशयनी एकादशी के बाद पथ प्रदर्शक गुरु की शरण में जाना आवश्यक हो जाता है। 

" धर्मज्ञो धर्मकर्ता च सदा धर्मपरायणः । 

 तत्त्वेभ्यः सर्वशास्त्रार्थादेशको गुरुरुच्यते ॥"

 परमात्मा की ओर संकेत करने वाले गुरु ही होते हैं। गुरु एक तरह का बांध है जो परमात्मा और संसार के बीच और शिष्य और भगवान के बीच सेतु का काम करते हैं। इन गुरुओं की छत्रछाया में से निकलने वाले कपिल, कणाद, गौतम, पाणिनी आदि अपने विद्या वैभव के लिए आज भी संसार में प्रसिद्ध है। 

गुरुओं के शांत पवित्र आश्रम में बैठकर अध्ययन करने वाले शिष्यों की बुद्धि भी तद्नुकूल उज्ज्वल और उदात्त हुआ करती थी। सादा जीवन, उच्च विचार गुरुजनों का मूल मंत्र था। तप और त्याग ही उनका पवित्र ध्येय था। लोकहित के लिए अपने जीवन का बलिदान कर देना और शिक्षा ही उनका जीवन आदर्श हुआ करता था।

गुरु- एक ऐसा विषय, जो बहुत से लोगों को बहुत गुरु यानी भारी-भरकम और बोझिल सा लगता है। गुरु धारण करने के सम्बंध में अनेकानेक धारणाएँ हैं, शंकाएँ हैं, प्रश्न हैं! इतनी भ्रांतियों और भ्रमों के बीच, ज़्यादातर लोग इस विषय से दूर रहना ही बेहतर समझते हैं। परंतु जिस विषय से हम परहेज़ करते हैं, उसी को हमारे शास्त्र-ग्रंथ खुलकर हमारे सामने रखते हैं। गुरु तत्त्व में निहित महिमा और गरिमा के सत्त्व की एक-एक बूंद को अच्छी तरह जज़्ब करने का संदेश देते हैं। हमारे और शास्त्रों के मत में यह विरोधाभास क्यों ?

गुरु दीक्षा किसको दी जाती है - 

शिव पुराण में भगवान् शिव माता पार्वती को ​ योग्य शिष्य को ​​​दीक्षा ​ देने ​के महत्त्व को  इस प्रकार समझाते है - हे वरानने ! आज्ञा हीन  , क्रियाहीन ,  श्रद्धाहीन तथा विधि के पालनार्थ दक्षिणा हीन जो जप किया जाता है वह निष्फल होता है।  
 इस वाक्य से गुरु दीक्षा का महत्त्व स्थापित होता है।  दीक्षा के उपरान्त गुरु और शिष्य एक दुसरे के पाप और पुण्य कर्मों के भागी बन जाते है।  शास्त्रो के अनुसार गुरु और शिष्य एक दूसरे के सभी कर्मों के दसवे हिस्से के फल के भागीदार बन जाते है , यही कारण है कि दीक्षा सोच समझकर ही दी जाती है।  अब प्रश्न यह उठता है कि दीक्षा के योग्य कौन होता है?  धर्म अनुरागी , उत्तम संस्कार वाले और वैरागी व्यक्ति को दीक्षा दी जाती है।  दीक्षा के उपरान्त आदान प्रदान की प्रक्रिया गुरु और शिष्य दोनों के सामर्थ्य पर निर्भर करती है।  दीक्षा में गुरु के सम्पूर्ण होने का महत्व तो है ही किन्तु सबसे अधिक महत्व शिष्य के योग्य होने का है।  क्योंकि दीक्षा की सफलता शिष्य की योग्यता पर ही निर्भर करती है।  शिष्य यदि गुरु की ऊर्जा और ज्ञान को आत्मसात कर अपने जीवन  में ना उतार पाये अर्थात  क्रियान्वित ना करे तो श्रेष्ठ प्रक्रिया भी व्यर्थ हो जाती है।  ​इसलिए अधिकांशतः  गुरु शिष्य के धैर्य , समर्पण और योग्यता का  परीक्षण एक वर्ष तक ​ विभिन्न विधियों से  करने के उपरान्त ही विशेष दीक्षा देते है।  ऐसी दीक्षा मन , वचन और कर्म जनित पापों का क्षय कर परम ज्ञान प्रदान करती है।  

शिष्य को किस प्रकार की दीक्षा दी जाए इसका निर्धारण गुरु शिष्य की योग्यता और प्रवृत्ति के अनुसार करता है।  दीक्षा का प्रथम चरण है मंत्र द्वारा दीक्षा।  जब शिष्य  अपनी  मनोभूमि​ को तैयार कर ​, सामर्थ्य, योग्यता, श्रद्धा, त्यागवृत्ति​ ​के द्वारा मंत्रो को सिद्ध कर लेता है तो​ ​दीक्षा के अगले चरण में पहुंच जाता है।  ​अगला स्तर प्राण दीक्षा /  शाम्भवी दीक्षा का होता है।  

कभी कभी गुरु स्वयं ही अपने शिष्य का चुनाव करते है . शिष्य का गुरु से जब पिछले जन्म से ही सम्बन्ध होता है और जागृत गुरु को इसका ज्ञान होता है , ऐसी परिस्थिति में गुरु स्वयं शिष्य का चुनाव करते है.

जब व्यक्ति की योग्यता अच्छी हो और गुरु पाने की तीव्र अभिलाषा हो तो योग्य गुरु को योग्य शिष्य से मिलाने में इश्वर स्वयं सहायता करते है . ऐसा श्री राम कृष्ण परमहंस के साथ हुआ था . उनके गुरु तोताराम को माँ काली ने स्वप्न में दर्शन देकर रामकृष्ण के गुरु बनने का आदेश दिया था . 

तीसरी परिस्थिति में शिष्य अपनी बुद्धिमत्ता से गुरु की योग्यता की पहचान कर दीक्षा को धारण करता है और गुरु शिष्य की योग्यता को समझकर दीक्षा के प्रकार का निर्धारण करता है .​



 

~ गुरु की जीवन में आवश्यकता ~

गुरु के महत्व पर संत शिरोमणि तुलसीदास ने रामचरितमानस में लिखा है –

 

" गुर बिनु भवनिधि तरइ न कोई। जों बिरंचि संकर सम होई।। "


भले ही कोई ब्रह्मा, शंकर के समान क्यों न हो, वह गुरु के बिना भव सागर पार नहीं कर सकता। धरती के आरंभ से ही गुरु की अनिवार्यता पर प्रकाश डाला गया है। वेदों, उपनिषदों, पुराणों, रामायण, गीता, गुरुग्रन्थ साहिब आदि सभी धर्मग्रन्थों एवं सभी महान संतों द्वारा गुरु की महिमा का गुणगान किया गया है। 

गुरु और भगवान में कोई अन्तर नहीं है। संत शिरोमणि तुलसीदास जी रामचरितमानस में लिखते हैं –


बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।

महामोह तम पुंज जासु बचन रबिकर निकर।।


अर्थात् गुरू मनुष्य रूप में नारायण ही हैं। मैं उनके चरण कमलों की वन्दना करता हूँ। जैसे सूर्य के निकलने पर अन्धेरा नष्ट हो जाता है, वैसे ही उनके वचनों से मोहरूपी अन्धकार का नाश हो जाता है।


किसी भी प्रकार की विद्या हो अथवा ज्ञान हो, उसे किसी दक्ष गुरु से ही सीखना चाहिए। जप, तप, यज्ञ, दान आदि में भी गुरु का दिशा निर्देशन जरूरी है कि इनकी विधि क्या है?


 अविधिपूर्वक किए गए सभी शुभ कर्म भी व्यर्थ ही सिद्ध होते हैं जिनका कोई उचित फल नहीं मिलता। स्वयं की अहंकार की दृष्टि से किए गए सभी उत्तम माने जाने वाले कर्म भी मनुष्य के पतन का कारण बन जाते हैं।


भौतिकवाद में भी गुरू की आवश्यकता होती है।

सबसे बड़ा तीर्थ तो गुरुदेव ही हैं जिनकी कृपा से फल अनायास ही प्राप्त हो जाते हैं। गुरुदेव का निवास स्थान शिष्य के लिए तीर्थ स्थल है। उनका चरणामृत ही गंगा जल है। वह मोक्ष प्रदान करने वाला है। गुरु से इन सबका फल अनायास ही मिल जाता है। ऐसी गुरु की महिमा है।


" तीरथ गए तो एक फल, संत मिले फल चार।

सद्गुरु मिले तो अनन्त फल, कहे कबीर विचार।। "


मनुष्य का अज्ञान यही है कि उसने भौतिक जगत को ही परम सत्य मान लिया है और उसके मूल कारण चेतन को भुला दिया है जबकि सृष्टि की समस्त क्रियाओं का मूल चेतन शक्ति ही है। चेतन मूल तत्व को न मान कर जड़ शक्ति को ही सब कुछ मान लेनाअज्ञानता है। इस अज्ञान का नाश कर परमात्मा का ज्ञान कराने वाले गुरू ही होते हैं।


किसी गुरु से ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रथम आवश्यकता समर्पण की होती है। समर्पण भाव से ही गुरु का प्रसाद शिष्य को मिलता है। शिष्य को अपना सर्वस्व श्री गुरु देव के चरणों में समर्पित कर देना चाहिए। 


इसी संदर्भ में यह उल्लेख किया गया है कि 

" यह तन विष की बेलरी, और गुरू अमृत की खान, 

शीश दियां जो गुरू मिले तो भी सस्ता जान। "


गुरु ज्ञान गुरु से भी अधिक महत्वपूर्ण है। प्राय: शिष्य गुरु को मानते हैं पर उनके संदेशों को नहीं मानते। इसी कारण उनके जीवन में और समाज में अशांति बनी रहती है।



गुरु के वचनों पर शंका करना शिष्यत्व पर कलंक है। जिस दिन शिष्य ने गुरु को मानना शुरू किया उसी दिन से उसका उत्थान शुरू शुरू हो जाता है और जिस दिन से शिष्य ने गुरु के प्रति शंका करनी शुरू की, उसी दिन से शिष्य का पतन शुरू हो जाता है।


सद्गुरु एक ऐसी शक्ति है जो शिष्य की सभी प्रकार के ताप-शाप से रक्षा करती है। शरणा गत शिष्य के दैहिक, दैविक, भौतिक कष्टों को दूर करने एवं उसे बैकुंठ धाम में पहुंचाने का दायित्व गुरु का होता है।


आनन्द अनुभूति का विषय है। बाहर की वस्तुएँ सुख दे सकती हैं किन्तु इससे मानसिक शांति नहीं मिल सकती। शांति के लिए गुरु चरणों में आत्म समर्पण परम आवश्यक है। सदैव गुरुदेव का ध्यान करने से जीव नारायण स्वरूप हो जाता है। वह कहीं भी रहता हो, फिर भी मुक्त ही है। ब्रह्म निराकार है। इसलिए उसका ध्यान करना कठिन है। ऐसी स्थिति में सदैव गुरुदेव का ही ध्यान करते रहना चाहिए। गुरुदेव नारायण स्वरूप हैं। 


इसलिए गुरु का नित्य ध्यान करते रहने से जीव नारायणमय हो जाता है। भगवान श्रीकृष्ण ने गुरु रूप में शिष्य अर्जुन को यही संदेश दिया था –


सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्याि माम शुच: ।। (गीता 18/66)


अर्थात् सभी साधनों को छोड़कर केवल नारायण स्वरूप गुरु की शरणगत हो जाना चाहिए। वे उसके सभी पापों का नाश कर देंगे। शोक नहीं करना चाहिए। 



जिनके दर्शन मात्र से मन प्रसन्न होता है, अपने आप धैर्य और शांति आ जाती हैं, वे परम गुरु हैं। जिनकी रग-रग में ब्रह्म का तेज व्याप्त है, जिनका मुख मण्डल तेजोमय हो चुका है, उनके मुख मण्डल से ऐसी आभा निकलती है कि जो भी उनके समीप जाता है वह उस तेज से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। 


उस गुरु के शरीर से निकलती वे अदृश्य किरणें समीपवर्ती मनुष्यों को ही नहीं अपितु पशु पक्षियों को भी आनन्दित एवं मोहित कर देती है। उनके दर्शन मात्र से ही मन में बड़ी प्रसनन्ता व शांति का अनुभव होता है। 


मन की संपूर्ण उद्विग्नता समाप्त हो जाती है ऐसे परम गुरु को सत सत प्रणाम । 🙏🙏🙏🙏🙏


गुरु प

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